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Monday, January 14, 2008

ग़ज़ल

कुर्वत इतनी न हो के वो फासला बढ़ाये
मसर्रत का रिश्ता दर्द में न तब्दील हो जाये

जाना है हम को मालूम है फिर भी
ख्वाहिश ये के चलो आशियाँ बनायें

खुली न खिड़की न खुला दरवाजा कोई
मदद के लिए वहां बहुत देर हम चिल्लाये

रूह छलनी जिस्म घायल हो जहाँ
जशन उस शहर मे कोई कैसे मनाये

लुटती आबरू का तमाशा देखा सबने
वख्ते गवाही बने धृतराषटृ जुबान पे ताले लगाये

चूल्हा जलने से भी डरते हैं यहाँ के लोग
के भड़के एक चिंगारी और शोला न बन जाये

धो न सके यूँ भी पाप हम अपना दोस्तों
गंगा में बहुत देर मल-मल के हम नहाये