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Thursday, November 13, 2008

देश

बदलना चाहो भी तो बदल न पाओगे ज़माने को
बैठे हैं भेष बदल दरिन्दे कोशिश मिटाने को।

बाणों से बिंधा देश है कब से चीख रहा
कोई तो दे दे सहारा मेरे इस सिरहाने को।

सही न गई जब भूख अपने बच्चों की
हो गई खड़ी बाज़ार में ख़ुद ही बिक जाने को।

बूढी आँखें राह तक तक के हार गईं
लौटा न घर कभी गया विदेश जो कमाने को।

विधवा माँ की भूख दवा उम्मीद है जो
कहते हैं क्यों सभी उसे ही पढाने को।

नन्ही उँगलियाँ चलाती है कारखाने जिनके
छेड़ी उन्होंने ही मुहीम बाल मजदूरी हटाने को।

अपनो ने किया दफन गर्भ में ही उस को
तो क्या जो वो चीखती रही बाहर आने को।