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Monday, December 13, 2010



कभी कभी दीप का प्रकाश ह्रदय के अन्धेरों से हार जाता है .आंसू तेल बन भी जलते हैं कभी, पर सुख की आंच नहीं बन पाते-



प्रेम की बाती बन
मै अकेली जलती रही
शब्दों की हवाओं से बची
पर अब वो आंधियां बन चुके हैं
हाथों के घेरों से
हो सके तो
मुझे बचालो
 
माटी के दिए ने सोखा
मोहब्बत का तेल
सुखी बाती भभक के जली
और राख होगई
वो दिए को
उम्मीद के पानी से
सीचना भूल गई थी 

तुम्हारे  प्रेम की
जिस आंच से
जलाया था
उस रोज दिया
वो आंच अब कहीं और महकती है
अब हर बार
दोवाली अँधेरे में बीतती है

2 comments:

सहज साहित्य said...

रचना जी इन पक्तियों का सौन्दर्य है इनमें अभिव्यक्त आकुलता -मै अकेली जलती रही
शब्दों की हवाओं से बची
पर अब वो आंधियां बन चुके हैं
हाथों के घेरों से
हो सके तो
मुझे बचालो ।
और इसे आपने बहुत सहजता और मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है । बधाई !

Dr.Sushila Gupta said...

तुम्हारे प्रेम की
जिस आंच से
जलाया था
उस रोज दिया
वो आंच अब कहीं और महकती है
अब हर बार
दोवाली अँधेरे में बीतती है

pyar ki bahut hi sahas aur marmik prastuti ke lie aapka abhar.