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Wednesday, April 20, 2011

सोचती हूँ यदि दर्द के काँटे न होते तो ये आँसूं कहाँ ठहरते. पीड़ा की नदी वेग से चलती जरुर पर ठिकाने नहीं मिलते. जीवन दर्द के काँटों, पीड़ा की नदी और आँसुओं की गठरी समेटे पथरीली राहों पर चलता  है और फूलों की चाह रखता है . दर्द के इसी जज्बे को शब्दों ने आज पनाह दी है-
 
साँवली  रात
की सिलवटों में
 खोये रहते थे हम
और पहरे पर होता चाँद
खुल चुकी हैं
सिलवटें
अब तो ,
और घायल है चाँद
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सौप के खुशबू
दर्द  ने
बढाया सदा हौसला मेरा
आज जो मुड के देखा
वो भी
हाथों में कांटे लिए खड़ा था
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चाँद
जिसे आगोश में ले
जी भर रो लेती थी
अँगुलियों की झिर्री से
कूद कर बोला
बरसात का मौसम
भाता नहीं मुझे
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आज फिर
उतरी है
मोहब्बत दरिया में
आज फिर डूबेगा
नाम कोई
कहते हैं
प्यार
करने वालों को
पक्के घड़े
नहीं मिलते
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