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Friday, July 29, 2011




वो स्वयं टूटती है, पर रिश्तों को जोड़े रहती है l.बिखरती है ,लेकिन पूरे घर को समेटे रहती है l स्थान ,समय ,और परिस्थितियाँ  उसका प्रारब्ध नहीं बदलते  l  अपने अन्दर की उर्जा को खर्च कर बहुत कुछ करती है ....जब तक कर पाती है ............


  एक औरत    



एक औरत
जब अपने अन्दर खंगालती   है
तो पाती है
टूटी फूटी
इच्छाओं की सड़क ,,
भावनाओं का
उजड़ा बगीचा ,
और
लम्हा लम्हा मरती उसकी
कोशिकाओं  की लाशें  
लेकिन
इन सब के बीच भी
एक गुडिया
बदरंग कपड़ों मे मुस्काती है
ये औरत
टूटती है ,बिखरती है
काँटों से अपने जख्म सीती है
पर इस गुडिया को
खोने नहीं देती 
शायद इसीलिए
तूफान  की गर्जना को
गुनगुनाहट में बदल देती है
औरत




यही कविता रचनाकार पर 
 
http://www.rachanakar.org/2011/07/blog-post_5925.html