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Friday, February 3, 2012

मेरी माँ हमेशा कहती है कि इस एक चुटकी सिंदूर में न जाने क्या होता है की स्त्री जीवन भर के लिए उसी की हो के रह जाती है .सारे रिश्ते पीछे छूट जाते हैं . उसकी  ख़ुशी में खुश और  उसके दुःख में दुखी होती रहती है और ऐसा करने में ही स्त्री को सवार्गिक सुख मिलता है .इसी भाव से प्रभावित है ये कविता ......................

समर्पण
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सामाजिक रीत निभाने को
मेरी मांग में ,
लाली भरी
पर रिश्ते को पागा नहीं
प्रेम की चाशनी मेंl
तुम्हारी नजरो की चाह में
चन्द्र किरण से सजी
पर देखा इस तरह
जैसे बेवख्त आये मेहमान को
देखता है कोई
स्नेह की  रोली बन
बिकी मै हाट में
तुमने ख़रीदा ,
और बिखेर दिया
तुम्हारी बेल में फूल बन खिली
गैर के लिए तोडा मुझे
शी लव मी शी लव मी नोंट
कहते हुए
मेरी पंखुड़ी पंखुड़ी नोच डाली
कभी जोड़ा जो नेह
तो इस तरह
के दो वख्त की रोटी के बदले
ले लेता है आबरू
मालिक जैसे
संबंधों के दरख्त को
मै लहू से सीचती रही
खुद को समेट
सौपती रही तुम्हें
और तुम,
मुझे तार तार उधेड़ते रहे
 फिर भी,
हर धागा बस यही कहता रहा
मेरे मांग की लाली,
कलाई की खनक
मंगल सूत्र की चमक हो तुम