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Thursday, August 30, 2012

कभी कभी कोई दर्द इतना गहरे बैठ जाता है की उसकी जलन शायद जीवन भर महसूस होती रहती है . ..किसी अपने से दूर होने के कारण आँखें उसको देख नहीं पाती पर महसूस कर पाती है वही भावना शब्दों का सहारा ले कर आज यहाँ उतर आई है .


क्यों होजाता है अकेला ?

जीवन भर
समय की ट्रेन
पकड़ने को
भागते रहे कदम
भोर से धुंधलके  के बीच
काम और अपमान  की
 दोधारी तलवार पर
चलते रहे l
लू  की  जलन
ठण्ड की पपड़ियाँ
छिलती  गईं देह
पर तुम्हे
ये ज़ख्म देखने की
फुर्सत कहाँ थी
तुम तो पूरी करते रहे
 उम्मीदों की भी उम्मीद
अपने ही चरागों  की
भटकती लौ को
 सहारा देते तुम्हारे हाथ
अपमान के फफोलो से भर गए
फिर भी
घर को
बचाने के लिए 
तुम नीव का
वो  पत्थर बने
जिसकी सराहना किसी ने नहीं  की
चक्की
में  पिसता रहा
तुम्हारा श्रम
पर भूख
किसी की शांत न हुई
सब कुछ दे कर भी
एक पुरुष
क्यों होजाता है अकेला
अपने अंतिम  पलों में ?