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Friday, October 4, 2013

मैने तो खेतों में
फैक्ट्री नहीं बीजी थी
न जाने कैसे
चहुँ और मशीने उग आईं 
-0-

न जाने क्यों
मन हंस ने
खुशियों के मोती चुनने से
इंकार कर दिया
 शायद
गम उसे अब रास आने लगा है
-0-
हर रोज
उगाती  हूँ
एक उम्मीद अपनी हथेली पर
सूरज से
मांग  कर
एक कतरा धूप
उसको पोस्ती  हूँ
पलकों से
उसका पोर पोर सहलाती हूँ
मगर 
न जाने क्यों
शाम ढलते ढलते
वो मुरझाने लगती  है
रात  फिर डराने लगती है मुझे
और मै
 उम्मीद की लाश आपने आगोश में लिए
पलंग के एक कोने में सिमट जाती हूँ